अनंग की भाषा बोल गयी
सोन मछरिया स्थिर जल में कर कल्लोल गयी।
जब नैनों से निज मन के वह पन्ने खोल गयी।।
सीटी मारे बांस पास पल पछुवा डोल गयी।
लाज के कारण लाल कली का घूँघट खोल गयी।
महुवा की मादकता मन में मिशरी घोल गयी ॥
कुहू-कुहू कविता कोयलिया रच कर चली गयी।
और चकोरी निठुर चाँद के हांथों छली गयी ।
नीयत पटु पलाश की पीली संरसो तोल गयी॥
कंचन-कनी-कामिनी कर में दरपन बाँच रही।
जैसे सपनों की देहरी पर संयम जाँच रही।
अंग-अंग पगले अनंग की भाषा बोल गयी॥
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