मंगलवार

गोमुख में गंगाजी

गोमुख में गंगाजी ऐसी दिखती हैं.

शुक्रवार

तुम जब मौन रहती हो

तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं,
जैसे भेद मन ही मन ये मन का खोलती हैं
कभी ये जेठ में बरगद की जैसे छाँव लगती हैं,
कभी ये ठेठपन में हो हमारा गाँव लगती हैं
नदी की रेत पर चंचल किरन सा खेलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं
हिरन शावक सदृश छुप ओट झुरमुट झांकती हैं,
जसोदा डांटती हो कृष्णा जैसे भागती हैं
क़ि वृन्दावन में जैसे राधिका सी डोलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।
पवन
से डोलता हो चांदनी का फूल लगती हैं,
विरहणी सी किसी की यादमें मशगूल लगती हैं
पिघलती हिम शिखर सा हैं ह्रदय सा खौलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।
कि बजती बांसुरी सी शंख जैसा गूंजती हैं,
कि फागुन अम्रवन में कोकिला सी कूजती हैं
कभी मन छीन लेती हैं कभी मन तोलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।
कभी स्मृति भविष्यति का कभी ये चित्र लगती हैं,
कोई खोया मिला बचपन का जैसे मित्र लगती हैं
पटल पर ये अजंता या एलोरा खोलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।
शरद की गंध खेतों में पके हों धान लगती हैं,
किन्ही पथराये नैनों में फूंकती प्राण लगती हैं
कभी रति में विरति में ये हिंडोरा झूलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।
कि पावन जान्हवी सी भानुजा सी निर्मला हो,
कोई सपना चिरंतन काल से जैसे पला हो
कभी मीरा कहीं गोपाल रंग-रस घोलती हैं
तुम जब मौन रहती हो तो ऑंखें बोलती हैं।